लेह: ऊँचे पहाड़ों के बीच बसी जन्नत की एक अनोखी कहानी
रात के करीब 3 बजे ट्रेन अचानक रुक गई। स्टेशन का नाम धुँध में छिपा था — “कुमारहट्टी”। न कोई अनाउंसमेंट, न भीड़। बस दो-तीन झपकती पीली लाइटें और ठंडी हवा में उड़ता कोहरा। मैं नीचे उतर आया, बिना किसी वजह के। बस एक अनजाने खिंचाव से।
प्लेटफ़ॉर्म के एक कोने में एक चायवाला था — लकड़ी की जलती हुई आग पर केतली रखे हुए। उसने मुस्कुराकर कहा —
“साहब, इतनी रात में उतर गए? यहाँ तो ज़्यादा कोई रुकता नहीं।”
मैंने हँसते हुए कहा —
“शायद रुकने का मन नहीं था, ठहरने का था।”
उसने जो चाय दी, वो किसी पाँच-सितारा कॉफ़ी से कहीं ज़्यादा सच्ची थी। आसमान में कोहरे के बीच से धीरे-धीरे भोर का रंग उतरने लगा। पहाड़ों की आकृतियाँ धुंध से उभर रहीं थीं, और पटरियों के किनारे खिलते जंगली फूल जैसे किसी ने जानबूझकर वहाँ रख दिए हों।
उस एक घंटे में मैंने महसूस किया —
“कभी-कभी मंज़िल से ज़्यादा मायने रखता है वो मोड़, जहाँ आप रुककर खुद से मिलते हैं।”
सुबह की पहली ट्रेन आई, और मैं वापस उसी में चढ़ गया। कुमारहट्टी स्टेशन पीछे छूट गया, लेकिन उसका सन्नाटा, वो चाय की महक, और वो एक घंटे की शांति — शायद हमेशा मेरे साथ रह गई।
अगर आप कभी जाएँ —
कुमारहट्टी (हिमाचल प्रदेश) शिमला जाते समय सोलन के पास एक छोटा स्टेशन है।
सुबह का समय सबसे सुंदर होता है — कोहरा, पहाड़, और सन्नाटा एक साथ।
और हाँ, वहाँ की चाय ज़रूर पीना।
Read Also : भारत की काँच नगरी फ़िरोज़ाबाद: इतिहास, हुनर और परंपरा की कहानी
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें